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जब भी कोई धार्मिक निर्देश दिये जाते हैं तो उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि उन आदर्शों को व्यवहार में हम कैसे ला सकेंगे। कभी-कभी लोग यह अनुमान कर लेते हैं कि उन्होंने आदर्श समझ लिये हैं और वे उनके विषय में लम्बी-चौड़ी बातें भी कर लेते हैं और उनकी धारणा होती है कि इसके अलावा कुछ भी करना आवश्यक नहीं है। यह तो बड़ी भारी भूल ही है जैसे मेज पर स्वादिष्ट पकवान रखे हुए देखने मात्र से ही क्षुधा निवारण तो नहीं हो जाता न! जब तक हम उन पकवानों को खाकर हजम नहीं कर लेते और वह अपने शरीर का “अभिन्न अंग नहीं बन जाता, तब तक जगत् के सभी पकवान हमारे लिए कोई महत्त्व नहीं रखते।
इन व्याख्यानों का उद्देश्य यह है कि हम वेदान्त के सिद्धान्तों को भली-भाँति समझ सकें, जिससे वह हमारे दैनन्दिन जीवन में घुल-मिल जाएँ; जन सामान्य को यह सिखलाना कि इन सिद्धान्तों को किस तरह हम व्यवहार में ला सकते हैं और प्रत्येक क्षण अपने अस्तित्व के साथ हम इन्हें लेकर जी सकते हैं। जब हम इन विचारों को हमारे भीतर आत्मसात् कर लेंगे, तभी उनका पोषण होगा और वे हमारी आध्यात्मिकता को दृढ़ बनाएँगे।, उसी तरह जैसे भोजन करने से हमारा शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। वेदान्त बहुत ही व्यावहारिक सिद्धान्त है, और इन पाँचों व्याख्यानों को कुछ इस तरह सजाया गया है कि पाठक इन सत्यों को अपने जीवन में उतार सकेंगे जिसे वक्ता ने समझकर उनके समक्ष रखे हैं। लेखक ने इन वेदान्त के विचारों को अनुरोध करने के कारण ही मुक्तहस्त प्रदान किये थे। उन्होंने इन विचारों को इस आशा से दिये थे कि इनके द्वारा कतिपय लोगों का कल्याण तो अवश्य ही होगा।
General
- AuthorSwami Paramananda
- TranslatorSwami Urukramananda