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H177 Tum Paramahansa Ho Jaoge (तुम परमहंस हो जाओगे)

H177 Tum Paramahansa Ho Jaoge (तुम परमहंस हो जाओगे)

Non-returnable
Rs.35.00
Author
Swami Sarvagatananda
Compiler/Editor
N/A
Translator
Swami Rajendrananda
Language
Hindi
Publisher
Ramakrishna Math, Nagpur
Binding
Paperback
Pages
88
ISBN
9789384883416
SKU
H177
Weight (In Kgs)
0.08
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Product Details
Specifications
रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम, कनखल (हरद्वार) द्वारा १०० इयर्स जर्नी ऑफ रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम – कमेमोरेटिव सूवेनियर १९०१-२००१ नामक एक स्मारिका २००१ में प्रकाशित हुई थी जिसमें स्वामी सर्वगतानन्दजी द्वारा अंग्रेजी में लिखित सर्वाग्रणी एवं अतिप्रेरक लेख, यू विल बिकम परमहंस का समावेश था। इसी नाम से यह लेख रामकृष्ण संघ की अंग्रेजी पत्रिका प्रबुद्ध भारत के सितम्बर २००२ से फरवरी २००३ तक के अंकों में प्रकाशित हुआ था। अद्वैत आश्रम, कोलकाता ने भी पूर्वोक्त नाम से ही इस लेख को सर्वप्रथम मई २००५ में पुस्तकाकार में प्रकाशित किया था। प्रस्तुत पुस्तक के हिन्दी अनूदन के लिए हमने उक्त स्मारिका में प्रकाशित लेख को मुख्य आधार माना है तथा अद्वैत आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक की भी सहायता ली है। स्वामी कल्याणानन्दजी ने अपने गुरुदेव स्वामी विवेकानन्दजी की आज्ञा को निष्ठापूर्वक तथा दृढ़तापूर्वक शिरोधार्य करके तत्कालीन भ्रमित लोकाचार का विरोध सहन करते हुए भी रोगी-नारायण की सेवा की थी। श्रीरामकृष्ण के उपदेश वाक्य ‘शिवभावे जीवसेवा’ तथा रामकृष्ण संघ के आदर्श वाक्य ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च’ के अनुसार सेवाव्रती रहते हुए उन्होंने विरोध करने वाले अनेकों संन्यासी सम्प्रदायों तथा रूढ़ीवादी समाज से भी लोहा मनवाया कि ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ के साथ साथ हमें ‘जीवो ब्रह्मैव नापरः’ की उक्ति को भुलाना नहीं चाहिए। वेदान्त के सर्वोच्च सत्यों को व्यवहार में न लाना अथवा व्यावहारिक जीवन में सत्य का आचरण न करके केवल पारमार्थिक सत्य का ढोल पीटना निरर्थक है। जहाँ कहीं भी इस शाश्वत नियम का अज्ञानवश उल्लंघन होता है वहाँ चतुर्दिक विशृङ्खलता तथा घोर अधःपतन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है तथा दैनन्दिन जीवन में सत्य की उपेक्षा करके केवल पारमार्थिक सत्य की बातें खोखली सिद्ध होती हैं तथा मिथ्याचरण को बढ़ावा देती हैं। स्वामी विवेकानन्दजी के वरदान के अनुरूप परमहंस हुए स्वामी कल्याणानन्दजी ने जिस प्रकार आजीवन शास्त्रोक्त सत्यों को आचरण में लाकर दीन-दुखियों तथा रोगियों की सेवा न केवल स्वयं की अपितु अन्यों को भी तद्नुरूप प्रेरित किया उसी प्रकार आशा है कि यह पुस्तक सभी को सत्कार्यों के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध होगी।
General
  • Author
    Swami Sarvagatananda
  • Translator
    Swami Rajendrananda
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