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H092 Stavananjali : Mulamatram (स्तवनाञ्जलिः - मूलमात्रम्)
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Non-returnable
Rs.72.00 Rs.80.00
Author
N/A
Compiler/Editor
Compilation
Translator
N/A
Language
Sanskrit
Publisher
Ramakrishna Math, Nagpur
Binding
Paperback
Pages
236
ISBN
9789384883553
SKU
H092
Weight (In Kgs)
0.20
Quantity
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Product Details
Specifications
"संसार के सभी धर्मों में ईशस्तवन या ईश्वर के महिमागान को उपासना का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। स्मरणातीत काल से अगणित भक्त-साधक ईश्वरप्रेम में तल्लीन बन, उत्कट अन्त:प्रेरणा से प्रेरित हो विविध स्तोत्रों के माध्यम से ईश्वर का भावपूर्ण गुणगान, उनसे व्याकुल प्रार्थना, उनके सम्मुख अपने हृदय की र्आित या वेदना का निवेदन करते आये हैं; तथा उनके रचित ये स्तोत्र समकालीन एवं परवर्ती काल के असंख्य मानवों के लिए चित्तशान्ति, विमल आनन्द तथा आध्यात्मिक उन्नति के साधनस्वरूप बने हुए हैं। इस प्रकार के स्तोत्र सभी भाषाओं में पाये जाते हैं, परन्तु संस्कृत साहित्य में स्तोत्रों का अपना अलग ही स्थान है। `स्तूयते अनेन इति स्तोत्रम्' – `जिसके द्वारा स्तुति की जाए वह स्तोत्र है' इस परिभाषा के अनुसार स्तोत्रों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वेदों में हमें बहुविध विषयों के स्तोत्रों का विशाल भण्डार ही भरा मिलता है। अवश्य वैदिक स्तुतियाँ `सूक्त' के नाम से प्रचलित हैं, पर स्तोत्र और सूक्त हैं समानार्थी ही। वैदिक सूक्त गद्यात्मक और पद्यात्मक उभयविध होते हैं। इनमें कुछ सूक्त पूर्णरूपेण आध्यात्मिक भावपूर्ण हैं तो कुछ में विभिन्न देवताओं से आयु, आरोग्य, बल, धन-धान्य, सुख-समृद्धि, शान्ति आदि ऐहिक वस्तुओं की याचना की गयी है; कुछ में ईश्वर की केवल स्तुति है तो कुछ में उनसे प्रसन्न हो पाप-ताप, संकट आदि से रक्षा करने के लिए प्रार्थना की गयी है। इस प्रकार प्रेय और श्रेय, अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों विषयों की प्रार्थना से पूर्ण अनेक सूक्त पाये जाते हैं। पौराणिक स्तोत्रों में विषयों की विविधता के साथ छन्दों की विविधता, गेयता आदि का भी विकास दिखायी देता है। अधिकांश पौराणिक स्तोत्रों में भौतिक समृद्धि की अपेक्षा आत्मकल्याण को अधिक महत्त्व दिया गया है। विशिष्ट देवताओं से सम्बन्धित स्तोत्रों में प्रधानत: उन उन देवताओं के स्वरूप, उनकी गुणमहिमा, उनकी लीलाओं आदि का वर्णन तथा साथ ही उनकी कृपा या प्रसन्नता के लिए प्रार्थना आदि पाये जाते हैं। कुछ स्तोत्र प्रमुखत: किसी देवताविशेष के रूप या गुणमाहात्म्यवर्णनात्मक होते हैं, तो कुछ प्रार्थनात्मक। कुछ स्तोत्रों में दार्शनिक सिद्धान्तों या भावों का प्राचुर्य पाया जाता है, तो कुछ में साधनोपयोगी उपदेशों या निर्देशों का। किसी स्तोत्र में मुमुक्षु साधक अपने संकुचित, बन्धनमय जीवन की व्यर्थता, संसार के क्षणिक सुखों की असारता तथा स्वयं की क्षुद्रता और असमर्थता को देख निरुपाय और कातर हो तीव्र व्याकुलतापूर्वक प्रभु से मुक्ति माँगता है; किसी में भक्तसाधक भगवद्-दर्शन की एक झलक पाकर मुग्ध और विभोर हुआ, भगवान् की अहेतुक कृपा, असीम अनुकम्पा, भक्तवत्सलता आदि का स्मरण करने में तन्मय हो जाता है; तो किसी में शान्त साधक ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि आध्यात्मिक सम्पदाओं से अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए प्रार्थना करता है। संस्कृत स्तोत्र-साहित्य में श्रीशंकराचार्यजी का स्थान तो अद्वितीय ही है। संस्कृत में ऐसा कोई स्तोत्रसंग्रह शायद ही पाया जाएगा जिसमें शंकराचार्यजी के उदात्त भावमय, हृदयस्पर्शी, सुललित स्तोत्रों में से कुछ का समावेश न हुआ हो। आचार्य के स्तोत्रों में भाव और अर्थ की गहराई के साथ ही साथ प्रसाद, श्रुतिमधुरता, शब्दलालित्य आदि काव्यसौन्दर्य का जो अपूर्व संगम दृष्टिगोचर होता है, वह वास्तव में अतुलनीय है। आकार की दृष्टि से भी स्तोत्रों के कई प्रकार पाये जाते हैं। एकश्लोकात्मक ध्यानमन्त्र, प्रणाममन्त्र आदि से आरम्भ कर पंचकम्, षट्कम्, अष्टकम्, दशकम् आदि नामों से प्रचलित पाँच, छह, आठ, दस आदि श्लोकों से युक्त असंख्य स्तोत्र देखने में आते हैं। `शिवमहिम्न: स्तोत्रम्' `मुकुन्दमालास्तोत्रम्' आदि सुदीर्घ स्तोत्रों की संख्या भी अल्प नहीं है। योग्य भावानुकूल वृत्तों या छन्दों की संयोजना के कारण स्तोत्रों की भावव्यंजकता मानो और अधिक निखर उठती है। साधक-महापुरुषों द्वारा रचित स्तोत्रों मेें रचयिता के आध्यात्मिक व्यक्तित्व, उनकी साधना तथा अनुभूति की शक्ति अन्र्तिनहित होने के कारण वे स्तोत्र पाठक या श्रोता के हृदय में अनुकूल भावों का संचार कर उसे उच्च भूमि में आरूढ़ कराने की अपूर्व सामथ्र्य रखते हैं। ऐसे स्तोत्रों का पाठ चित्त को शान्त, प्रसन्न और पावन बनाने का अमोघ उपाय है। हमारे शास्त्रों में र्विणत कायिक, वाचिक और मानसिक इन त्रिविध उपासनाओं में से `वाचिक' उपासना में जप एवं स्तोत्रपाठ का अन्तर्भाव होता है। जप ही की तरह स्तोत्रपाठ को भी आध्यात्मिक उन्नति का सुनिश्चित परन्तु सुलभ साधन माना गया है। इस स्तोत्रपाठरूपी वाङ्मयी पूजा को सफल बनाने के लिए अन्तर्बाह्य शुचिता से सम्पन्न हो, शान्त, एकाग्र और श्रद्धायुक्त चित्त से, स्पष्ट स्वर में, शुद्ध उच्चारणपूर्वक, अर्थबोध और भावग्रहण का ध्यान रखते हुए पाठ करने की विधि पायी जाती है। प्रस्तुत चयनिका में हमने कुछ प्रसिद्ध वैदिक शान्तिमन्त्रों एवं सूक्तों तथा विविध देवी-देवता, अवतार आदि से सम्बन्धित ध्यानमन्त्र, प्रणाममन्त्र एवं अनेक अर्थगर्भ, सुललित स्तोत्रों के अलावा कुछ साधनोपयोगी उपदेशपरक स्तोत्रों का संकलन किया है। श्रीरामकृष्ण-संघ की विभिन्न शाखाओं में विभिन्न र्धािमक उत्सवों के अवसर पर गाये जानेवाले मधुर स्तोत्रों में से प्राय: सभी का समावेश इसमें किया गया है। हमने इस पुस्तक में सर्वत्र अपने ही वर्ग के व्यंजनों के पूर्व आनेवाले अनुनासिक व्यंजनों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया है। (उदाहरणार्थ – गङ्गा, पञ्च, खण्ड, मन्द, शम्भु शब्दों को क्रमश: गंगा, पंच, खंड, मंद, शंभु इस प्रकार लिखा गया है।)"


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