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Sadhu Nagamahashay ( साधु नागमहाशय )

H055 Sadhu Nagamahashay (साधु नागमहाशय)

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Rs.40.00
Author
Sri Sharachhandra Chakravarti
Translator
Pt. Dwarkanath Tiwari
Language
Hindi
Publisher
Ramakrishna Math, Nagpur
Binding
Paperback
Pages
149
ISBN
9789353181062
SKU
H055
Weight (In Kgs)
0.13
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Product Details
Specifications

भगवान ने गीता में प्रतिज्ञा की है कि जब जब धर्म की ग्लानि होगी और अधर्म का अभ्युत्थान होगा, तब तब धर्म के संस्थापन के लिए मैं जन्म ग्रहण करूँगा। और जब कभी भगवान् इस धराधाम पर अवतीर्ण होते हैं, तब अपनी लीला की पुष्टि के हेतु अपने पार्षदों को भी साथ लाते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी का काल धर्म की ग्लानि का काल रहा। जड़विज्ञान उतना प्रभावशाली कभी न था, जितना वह इस काल में रहा। प्रकृति से अतीत एक अचिन्त्य दैवी शक्ति पर अनास्था उतनी कभी न थी, जितनी इस समय। इसीलिए श्रीभगवान इस बार सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न होकर इस जगतीतल पर श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए और साथ आए उनकी लीला के सहायक स्वामी विवेकानन्द-प्रमुख उनके शिष्यगण। प्रस्तुत ग्रन्थ में उन्हीं के एक अन्तरंग गृहस्थ शिष्य साधु नागमहाशय की जीवनी लिपिबद्ध की गई है।

स्वामी विवेकानन्द और साधु नागमहाशय दो ओर-छोर थे। एक यदि ज्ञान और ‘महान् अहं’ के र्मूितमान प्रतीक थे, तो दूसरे भक्ति और ‘महान् त्वं’ के। बंगाल के प्रसिद्ध नाटककार श्री गिरीशचन्द्र घोष ने ठीक ही कहा है, ‘‘नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) और नागमहाशय को बाँधते समय महामाया बड़ी विपत्ति में पड़ गई। वह नरेन्द्र को जितना बाँधती, नरेन्द्र उतने ही बड़े हो जाते और माया की रस्सी छोटी पड़ जाती। अन्त में नरेन्द्र इतने बड़े हो गए कि माया को अपना-सा मुँह लेकर लौट जाना पड़ा। नागमहाशय को भी महामाया ने बाँधना आरम्भ किया। पर वह जितना बाँधने लगी, नागमहाशय उतने ही छोटे होने लगे, और अन्त में इतने छोटे हो गए कि माया-जाल में से निकलकर बाहर आ गए!’’

अपने गुरुदेव भगवान् श्रीरामकृष्ण देव की आज्ञा शिरोधार्य कर नागमहाशय ने अपना सम्पूर्ण जीवन गृहस्थ के रूप में बिताया, पर वे आजन्म संन्यास-धर्म का पालन करते रहे। उनके ज्वलन्त वैराग्य और पावित्र्य को देखकर स्वामी विवेकानन्द कहते, ‘‘त्याग और इन्द्रिय-संयम में ये हम लोगों से बढ़कर हैं।’’ दया और प्राणिमात्र पर प्रेम उनमें कूट-कूटकर भरा था। उन्होंने अपना आस्तित्व सम्पूर्ण रूप से उस महान् आस्तत्व में मिला दिया था, और कभी कभी तो वे इस एकात्म-भाव में इतने गहरे डूब जाते कि श्वास-प्रश्वास से हवामें विचरनेवाले कीटाणू कहीं मर न जायँ, इस आशंका से उनकी साँस ही बन्द हो जाती! गिरीशचन्द्र घोष ठीक ही कहते थे, ‘‘एकमात्र नागमहाशय ही ‘अिंहसा परमो धर्म:’ के ज्वलन्त दृष्टान्त हो सकते हैं।’’

मूल बँगला-जीवनी श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती द्वारा लिखी गई थी। उन्हें नामगमहाशय के बहुत ही घनिष्ठ सम्पर्क में आने का महान् सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हिन्दी-सन्त-साहित्य में एक ऐसी जीवनी की बड़ी आवश्यकता थी, जिससे हम यह सीख सकें कि किस प्रकार वर्तमान समाज और सांसारिक परिस्थितियों के बीच भी संन्यास और परम आध्यात्मिकता से पूर्ण जीवन बिताया जा सकता है। नागमहाशय का यह पावन जीवन-चरित्र इस कमी को पूरा करने की क्षमता रखता है।

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  • Author
    Sri Sharachhandra Chakravarti
  • Translator
    Pt. Dwarkanath Tiwari
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