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विशिष्ट महान् कार्य की पूर्ति के लिए स्वामी विवेकानन्दजी ने जन्म लिया था। उन्होंने विश्व में अपने गुरु भगवान् श्रीरामकृष्णदेव के सर्वव्यापी तथा स्फूर्तिदायी सन्देश का प्रचार तो किया ही, साथ ही जीर्ण भारतीय संस्कृति तथा धर्म के कलेवर में नवचैतन्य का संचार किया। उन्होंने भारत को जागृत किया तथा उसे अपनी महान् विरासत तथा श्रेष्ठता का ज्ञान कराया। वे क्रान्तदर्शी थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि भारत अपनी युग-युग की कुम्भकर्णी निद्रा छोड़कर अवश्य उठ खड़ा होगा तथा विश्व में पुनरपि अपना गौरव का स्थान प्राप्त कर लेगा। हमें उनके पत्रों में उनके क्रान्तदर्शी विचारों तथा मातृभूमि के पुनरुद्धार के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयत्नों की झलक देखने को मिलती है। उनका दृढ़ विश्वास था कि इसके आधार पर ही राष्ट्रीय जीवन की सारी समस्याएँ हल हो सकती हैं। उन्होंने अपने विभिन्न पत्रों में इस बात पर विशेष बल दिया कि हमें ‘मनुष्य-निर्माण’ करनेवाले धर्म, दर्शन तथा शिक्षा की आवश्यकता है। यही कारण है कि उनके पत्रों से हमें प्रेरणा, नवचैतन्य तथा स्फूर्ति प्राप्त होती है, अन्तःकरण में प्रखर ज्वाला प्रज्वलित होती है। ये पत्र इतने प्रभावी हैं कि वे सभी के हृदय को स्पर्श करते हैं। उनके सैकड़ों पत्रों में से कोई भी एक पत्र महान् क्रान्ति करने के लिए, व्यक्ति के जीवन में आमूल परिवर्तन करने के लिए समर्थ है। इन पत्रों में ‘भारत में संगठन-शक्ति से कार्य करने की प्रवृत्ति क्यों नही हैं’, ‘संगठन का रहस्य क्या है’, ‘अपने समाज के दोष दूर किये बिना भारत का उज्ज्वल भविष्य निर्माण करना क्यों असम्भव हैं’ ये विचार पाठकों के अन्तःकरण को सीधे स्पर्श करते हैं। अतएव स्वतन्त्र भारत में उनके इस शक्तिदायी पत्रों का विशेष महत्त्व है।
General
- AuthorSwami Vivekananda
- TranslatorSri Nrusinhavallabha Goswami