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प्रेम के द्वारा मनुष्य को ईश्वर से जोड़नेवाले विज्ञान को भक्तियोग कहते है। यही मानव-मन को ईश्वर की ओर उन्मुख कराने का सर्वाधिक सुगम एवं सरस मार्ग है। इसी कारण भगवान श्रीरामकृष्ण अपने पास आनेवाले बहुसंख्य लोगों को इसी मार्ग का उपदेश देते हुए कहते थे कि कलिकाल में नारदीय भक्ति ही उपयुक्त है। वैदिक काल से लेकर अब तक असंख्य ऋषि-मुनियों तथा सन्तों ने भक्तिविषयक उपदेश दिये है और उन्हें लेकर सहस्रों ग्रन्थों की रचना हुई है। तथापि इस विशाल भक्ति-वाङ्मय के बीच देवर्षि नारदकृत ‘भक्तिसूत्र’ अपना विशिष्ट स्थान रखता है। दर्शन की विभिन्न परम्पराओं में निरूपित तत्त्वों को स्मरण रखने में आसान बनाने के लिए सूत्र साहित्य की रचना हुई। यथा बादरायण व्यासकृत ‘ब्रह्मसूत्र’ और महर्षि पतञ्जलि द्वारा रचित ‘योगसूत्र’ आदि। इसी क्रम में भक्तिशास्त्र के मूल तत्त्वों का संग्रह करके नारदीय ‘भक्तिसूत्र’ की भी रचना हुई। भक्तिमार्ग के साधकों के लिए यह लघु पुस्तिका अत्यन्त उपादेय बन पड़ी है। ब्रह्मलीन स्वामी वेदान्तानन्दजी ने बँगला भाषा में ‘भक्तिप्रसंग’ नाम से इन सूत्रों पर एक टीका लिखी थी, जो काफी लोकप्रिय सिद्ध हुई। इसमें सूत्रों के अन्वय तथा अनुवाद के साथ ही व्याख्या भी दी हुई हैं। डॉ. केदारनाथ लाभ ने 1985 ई. में छपरा (बिहार) से इसका हिन्दी रुपान्तरण करके प्रकाशन कराया था। कुछ काल से इसके अनुपलब्ध होने के कारण हमने इसका पुनर्मुद्रण करके फिर से सुलभ कराने का निर्णय लिया।
General
- AuthorSwami Vedantananda
- TranslatorDr. Kedarnatha Labha